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अरो॑रवी॒द्वृष्णो॑ अस्य॒ वज्रोऽमा॑नुषं॒ यन्मानु॑षो नि॒जूर्वा॑त्। नि मा॒यिनो॑ दान॒वस्य॑ मा॒या अपा॑दयत्पपि॒वान्त्सु॒तस्य॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aroravīd vṛṣṇo asya vajro mānuṣaṁ yan mānuṣo nijūrvāt | ni māyino dānavasya māyā apādayat papivān sutasya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अरो॑रवीत्। वृष्णः॑। अ॒स्य॒। वज्रः॑। अमा॑नुषम्। यत्। मानु॑षः। नि॒ऽजूर्वा॑त्। नि। मा॒यिनः॑। दा॒न॒वस्य॑। मा॒याः। अपा॑दयत्। प॒पि॒ऽवान्। सु॒तस्य॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:11» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:4» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (अस्य,वृष्णः) इस वर्षा निमित्तक सूर्यमण्डल के (वज्रः) किरणों का जो निरन्तर गिरना (अरोरवीत्) वह बार-बार शब्द करता है और (अमानुषम्) मनुष्य सम्बन्धरहित पदार्थ को (मानुषः) मनुष्य जैसे वैसे (यत्) जिसको (निजूर्वात्) छिन्न-भिन्न करे वैसे जो (मायिनः) मायावी निन्दित बुद्धियुक्त (दानवस्य) दुष्ट कर्म करनेवाले की (मायाः) छलयुक्त बुद्धियों को (नि,अपादयत्) निरन्तर नष्ट करें और (सुतस्य) बड़ी-बड़ी ओषधियों के निकले हुए रस को (पपिवान्) पीनेवाला हो वह विजय को प्राप्त होता है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्तरिक्ष में बिजुली के शब्द मेघ को जतलाते हैं, वैसे राजजन दुष्टाचरणों सें दुष्टजनों को सचेत करावें अर्थात् उनके छल-कपटों को जता देवें ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथाऽस्य वृष्णो वज्रोऽरोरवीदमानुषं मानुष इव यन्निजूर्वात्तथा यो मायिनो दानवस्य मायान्यपादयत् सुतस्य पपिवान् भवेत् स विजयतेतमाम् ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अरोरवीत्) भृशं शब्दयति (वृष्णः) वर्षकस्य (अस्य) सूर्यस्य (वज्रः) किरणनिपातः (अमानुषम्) मनुष्यसम्बन्धरहितम् (यत्) यम् (मानुषः) मनुष्यः (निजूर्वात्) हिंस्यात्। अत्र लुङ्यडभावः। बहुलमेतन्निदर्शनमिति हिंसार्थस्य जुर्वधातोर्ग्रहणम्। (नि) (मायिनः) कुत्सिता माया प्रज्ञा विद्यते यस्य सः (दानवस्य) दुष्टकर्मकर्त्तुः (मायाः) छलयुक्ताः (अपादयत्) विनाशयेत् (पपिवान्) पाता (सुतस्य) महौषधिनिष्पन्नस्य रसस्य ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽन्तरिक्षे तडिच्छब्दा मेघं ज्ञापयन्ति तथा राजानो दुष्टाचरणैर्दुष्टान् प्रज्ञापयेयुः ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अंतरिक्षातील विद्युतची गर्जना मेघांचे अस्तित्व जाणवून देते, तसे राजे लोकांनी दुष्टाचरणापासून दुष्ट लोकांना सचेत करावे, अर्थात त्यांचे छळ कपट त्यांना जाणवून द्यावे. ॥ १० ॥